Arya Samaj Patna आर्य समाज पटना के वैदिक विद्वान के द्वारा विवाह, अंतेष्टि, शांति यज्ञ आदि सोलहों संस्कार के लिए संपर्क करे | mo. no . 7717766151
१) ईश्वर एक है व उसका मुख्य नाम 'ओ३म्' है । अपने विभिन्न गुण-कर्म-स्वभाव के कारण वह अनेक नामों से जाना जाता है ।
२) ईश्वर 'निराकार' है अर्थात् उसकी कोई मूर्त्ति नहीं है और न बन सकती है, न ही उसका कोई लिङ्ग या निशान है ।
३) ईश्वर 'अनादि, अजन्मा और अमर' है । वह न कभी पैदा होता है और न कभी मरता है ।
४) ईश्वर 'सच्चिदानन्दस्वरूप' है, अर्थात् सदैव आनन्दमय रहता है, कभी क्रोधित नहीं होता ।
५) जीवों को उसके कर्मानुसार यथायोग्य न्याय देने हेतु वह 'न्यायकारी' कहलाता है । यदि ईश्वर जीवों को उसके कुकर्मों का दण्ड न दे, तो इससे वह अन्यायकारी सिद्ध हो जायेगा ।
६) ईश्वर 'न्यायकारी' होने के साथ-साथ 'दयालु' भी है, अर्थात् वह जीवों को दण्ड इसलिए देता है कि जिससे जीव अपराध करने से बन्ध होकर दुःखों का भागी न बने, यही ईश्वर की दया है ।
७) कण-कण में व्याप्त होने से वह 'सर्वव्यापक' है, अर्थात वह प्रत्येक स्थान पर उपस्थित है ।
८) ईश्वर को किसी का भय नहीं होता, इससे वह 'अभय' है ।
९) ईश्वर 'प्रजापति' और 'सर्वरक्षक' है ।
१०) ईश्वर सदैव 'पवित्र' है अर्थात उसका स्वभाव 'नित्यशुद्धबुद्धमुक्त' है ।
११) ईश्वर को अपने कार्यों को करने के लिए किसी की सहायता की आवश्यकता नहीं पड़ता । ईश्वर 'सर्वशक्तिमान्' है अर्थात वह अपने सामर्थ्य से सृष्टि की उत्पत्ति, पालन और प्रलय करता है । वह अपना कोई भी कार्य अधूरा नहीं छोड़ता ।
१२) ईश्वर अवतार नहीं लेता । श्री रामचन्द्र तथा श्री कृष्ण आदि महात्मा थे, ईश्वर के अवतार नहीं ।
१३) ईश्वर 'सर्वज्ञ' है अर्थात उसके लिए सब काल एक है । भूत, वर्तमान और भविष्यत, यह काल तो मनुष्य के लिए है । ईश्वर तो 'नित्य' है, वह सर्वकालों में उपस्थित है ।
१) जीवात्मा, ईश्वर से अलग एक चेतन सत्ता है ।
२) जीवात्मा अनादि, अजन्मा और अमर है । वह न जन्म लेता है और न ही उसकी मृत्यु होती है ।
३) जीवात्मा अनेक है । इनकी शक्ति और ज्ञान में अल्पता होती है ।
४) जीवात्मा आकार रहित है, और न ही उसका कोई लिंग है ।
५) शरीर के मृत होने की अवस्था में जीवात्मा एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में चला जाता है ।
६) जीवात्मा कर्म करने में स्वतन्त्र है । इसके कर्मों का न्याय ईश्वर की न्याय-व्यवस्था में होता है ।
७) अगर जीवात्मा अल्पज्ञता से मुक्त होकर सदैव आनन्द की कामना करता है तो उसे शारीरिक इन्द्रियों के माध्यम से ईश्वर की शरण में जाना पड़ेगा, जिसे मोक्ष कहते हैं ।
१) प्रकृति जड़ पदार्थ है । यह सदा से रहनेवाली है और सदा से रहेगी ।
२) प्रकृति सर्वव्यापी नहीं है, क्योंकि इस सृष्टि के बाहर ऐसा भी स्थान है, जहां न प्रकृति है न जीव, अपितु केवल ईश्वर ही ईश्वर है ।
३) प्रकृति का आधार ईश्वर है । ईश्वर ही प्रकृति का स्वामी है ।
४) प्रकृति ज्ञानरहित है। प्रकृति ईश्वर के सहायता के बिना संचालित नहीं हो सकता है ।
५) संसार में कोई ऐसी चीज नहीं जिसको जादू कह सकते हैं । सब चीज नियम से होती है । प्रकृति की भी सभी चीजें सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी आदि नियम से चलती है । नियम बदलते नहीं, सदा एक से रहते हैं ।
आर्य समाज एक धार्मिक और सामाजिक सुधार आंदोलन है, जिसकी स्थापना स्वामी दयानंद सरस्वती ने 1875 में की थी। आर्य समाज का मुख्य उद्देश्य हिंदू धर्म को पुनर्जीवित करना और उसे उसके मूल वेदिक सिद्धांतों की ओर लौटाना था। स्वामी दयानंद का मानना था कि हिंदू धर्म के मूल सिद्धांत वेदों में निहित हैं, और उन्होंने वेदों को सबसे शुद्ध और प्रामाणिक धार्मिक ग्रंथ माना।
आर्य समाज ने कई महत्वपूर्ण धार्मिक और सामाजिक सुधार किए, जिनमें से कुछ निम्नलिखित हैं:
वेदों की ओर लौटो: आर्य समाज का मुख्य नारा "वेदों की ओर लौटो" (Back to the Vedas) था। इसका अर्थ था कि लोगों को वेदों के अध्ययन और वेदिक शिक्षाओं का पालन करना चाहिए, क्योंकि वेद ही सच्चे ज्ञान का स्रोत हैं।
मूर्तिपूजा का विरोध: आर्य समाज ने मूर्तिपूजा, अंधविश्वास और पाखंड का विरोध किया। उनका मानना था कि ईश्वर निराकार है और उसे किसी मूर्ति या प्रतिमा में सीमित नहीं किया जा सकता।
सामाजिक सुधार: आर्य समाज ने समाज में फैली कुरीतियों और बुराइयों जैसे बाल विवाह, सती प्रथा, जातिवाद, और महिलाओं की अवहेलना का विरोध किया। उन्होंने शिक्षा, विशेषकर महिलाओं और दलितों के लिए, का समर्थन किया और विधवा पुनर्विवाह को प्रोत्साहित किया।
शुद्धि आंदोलन: आर्य समाज ने शुद्धि आंदोलन की शुरुआत की, जिसका उद्देश्य उन लोगों को हिंदू धर्म में वापस लाना था, जिन्होंने मजबूरी या किसी अन्य कारण से अपना धर्म छोड़ दिया था।
यज्ञ और उपासना: आर्य समाज ने वेदिक यज्ञ और हवन को पुनर्जीवित किया और इन्हें नियमित धार्मिक अनुष्ठानों का हिस्सा बनाया। उनका मानना था कि यज्ञ और हवन से वातावरण शुद्ध होता है और समाज में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है।
शिक्षा का प्रचार: आर्य समाज ने शिक्षा के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने देशभर में कई स्कूल और कॉलेज स्थापित किए, जो अभी भी विद्यमान हैं। इन शैक्षिक संस्थानों में वेदिक शिक्षा के साथ-साथ आधुनिक विज्ञान और तकनीकी शिक्षा पर भी जोर दिया गया।
आर्य समाज ने भारतीय समाज में एक नए जागरूकता और परिवर्तन की लहर पैदा की, जिसने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को भी प्रेरित किया। आज भी आर्य समाज के सिद्धांत और आदर्श भारतीय समाज में एक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं।
वैदिक कर्मफल व्यवस्था
वैदिक कर्मफल व्यवस्था
सुख दुख का कारण मनुष्य के कर्म (काम या कार्य) हैं, ग्रह नहीं। मनुष्य जैसा काम करता है वैसा ही फल पाता है। ऐसा काम जिससे किसी का भला हुआ हो उसके बादले में ईष्वर की व्यवस्था से सुख प्राप्त होता है और ऐसा काम जिससे किसी का बुरा हुआ हो उसके बदले में मनुष्य को दुख मिलता है। ईष्वर पूर्ण रूप से न्यायकारी है। वह किसी की सिफारिष नहीं मानता। वह रिष्वत नहीं लेता। उसका कोई एजेंट या पीर, पैगम्बर या अवतार नहीं है।
अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के कामों का फल अलग अलग भोगना पड़ता है। वे एक दूसरे को काटकर बराबर नहीं करते। अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के कामों का अलग अलग हिसाब रहता है। ऐसा नहीं है कि एक अच्छा काम कर दिया और एक उतना ही बुरा काम कर दिया ओर वे बराबर होकर कट गए और हमें कोई फल न मिले। दोनों का अलग अलग फल भोगना पड़ता है। अच्छे और बुरे कामों के फलस्वरूप सुख और दुख साथ साथ भी चल सकते हैं। कुछ अच्छे कामों का फल हम भोग रहे हैं, साथ ही कुछ बुरे कार्यों का फल भी भोग रहे हैं।
मनुष्य जन्म में किए कामों के अनुसार ही आगे का जन्म मिलता है। अगर बुरे काम की बजाए अच्छे काम ज्यादा हों तो अगला जन्म मनुष्य का ही मिलता है। अगर बुरे काम ज्यादा हों तो अगला जन्म कामों के अनुसार पषु, पक्षी, कीड़ा, मकौड़ा आदि कुछ भी हो सकता है। यह बात सही नहीं है कि चैरासी लाख योनियों में से होकर ही मनुष्य जन्म फिर से मिलता है। हमारे सामने ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जहां बच्चों को अपने पूर्व के जन्म का ज्ञान है और वे पूर्व जन्म में भी मनुष्य योनि में ही थे।
भाग्य या प्रारब्ध क्या है। मनुष्य जो भी अच्छा या बुरा काम करता है उसके बदले में उसके अनुसार उसे जो फल मिलता है वही उसका भाग्य है। इस प्रकार अपना भाग्य मनुष्य खुद बनाता है, कोई और नहीं। कोई भी किसी दूसरे का भाग्य न बना सकता है और न ही बिगाड़ सकता है। किसान ने खेती करके जो फसल घर में लाकर रखली वह उसका भाग्य है, उसकी अपनी मेहनत का फल।
किसी भी अच्छे या बुरे काम का फल षासन-प्रषासन भी दे सकता है। अगर षासन-प्रषासन न दे तो ईष्वर तो देता ही है। कोई भी कर्म बिना फल के नहीं रहता।
जैसे माता पिता अपनी सन्तानों को बुरे कार्यों से हटाकर अच्छे कामों में लगाने की कोषिष करते हैं वैसे ही ईष्वर भी करता है। जब मनुष्य कोई बुरा काम करने लगता है तब उसे अन्दर से भय, षंका, लज्जा महसूस होती है और जब वह कोई अच्छा काम करने लगता है उसे आनन्द, उत्साह, अभय, निषंका महसूस होती है। ये दोनों प्रकार की भावनाएं ईष्वर की प्ररेणा होती हैं।
मनुष्य कुकर्म क्यों करता है। अविद्या अर्थात मान लेना कि कुकर्म के फल से बचने का उपाय कर लेंगे तथा राग, द्वेष और लालच के कारण ही मनुष्य कुकर्म कर बैठता है।
अथर्ववेद (12-3-48) - कर्म का फल करने वाले को ही मिलता है। इसमें किसी और का सहारा नहीं होता, न मित्रों का साथ मिलता है। कर्म फल प्राप्ति में कमी या अधिकता नहीं होती। जिसने जैसा कर्म किया उसको वैसा ही और उतना ही फल मिलता है।
महाभारत में युद्ध की समाप्ति पर गन्धारी श्री कृष्ण से कहती है - निष्चय ही पूर्व जन्म में मैंने पाप कर्म किए हैं जो मैं अपने पुत्रों, पौत्रों और भाईयों को मरा हुआ देख रही हूँ।
महाभारत में ही षान्ति पर्व में कहा गया है - जैसे बछड़ा हजारों गउÿओं के बीच में अपनी माँ के पास ही जाता है ऐसे ही कर्म फल कर्म के करने वाले के पास ही जाता है।
मनुस्मृति (4-240) - जीव अकेला ही जन्म और मरण को प्राप्त होता है। अकेला ही अच्छे कर्मों का फल सुख और बुरे कामों की फल दुख के रूप में भोगता है।
ब्रह्मवैवत्र्त पुराण (प्रकृति 37-16) - करोड़ों कल्प बीत जाने पर भी बिना कर्म फल को भोगे उनसे छुटकारा नहीं मिल सकता।
चाणक्य नीति - किए हुए अच्छे और बुरे कर्मों का फल अवष्य भोगना पड़ता है।
गीता (5-15) - हमारे सुखों और दुखों के लिए परमात्मा उत्तरदायी नहीं है, बल्कि हमारे अच्छे और बुरे कर्म उत्तरदायी हैं। अज्ञानता के कारण हम अपने सुख दुख के लिए परमात्मा को उत्तरदायी ठहराते हैं, जबकि वह न हमारे पापों के लिए जिम्मेदार है और न ही पुण्यों के लिए जिम्मेदार है।
वाल्मीकि रामायण (युद्ध काण्ड 63-22) - रावण के मारे जाने के बाद जब हनुमान लंका में सीता को राम की विजय का समाचार सुनाने गए तब सीता ने हनुमान से कहा - मैंने यह सब दुख पूर्व जन्म में किए हुए कामोें के कारण ही पाया है क्यांेकि अपना किया हुआ ही भोगा जाता है।
वाल्मीकि रामायण (अरण्य काण्ड 35-17,18,19,20) - सीताहरण के पष्चात श्री राम सीता के वियोग में विलाप करते हुए कहते हैं - हे लक्ष्मण! मैं समझता हूँ इस सारी भूमि पर मेरे समान बुरे काम करने वाला पापी पुरुष और कोई नहीं है क्योंकि एक के पष्चात एक दुखों की परस्परा मेरे हृदय और मन को चीर रही है। पूर्व जन्म में निष्चय ही मैंने एक के पष्चात एक बहुत से पाप किए हैं। उन्हीं पापों का फल आज मुझे मिल रहा है। राज्य हाथ से छिन गया, अपने लोगों से वियोग हो गया, पिता जी परलोक सिधार गए, माता जी से बिछोड़ा हो गया। इन घटनाओं को याद करके मेरा हृदय षोक से भर जाता है। है लक्ष्मण, ये सारे दुख इस रमणीक वन में आने पर षान्त हो गए थे। परन्तु आज सीता के वियोग से वे सभी भूले हुए दुख उसी प्रकार फिर से ताजा हो गए हैं जैसे लकड़ी डालने से आग जल उठती है।
पष्चाताप (मनुस्मृति 11-230) - पाप कर्म होने पर उस पर पष्चाताप करके मनुष्य उस पाप भावना से छूट जाता है। फिर वह पाप कर्म नहीं करता। यही पष्चाताप का फल है। जो कर चुका उसका फल तो भोगना ही पड़ेगा। किए कर्म के फल से बचने का षास्त्रों में कहीं कोई उपाय नहीं बताया। पाप का फल अवष्य मिलेगा यह सोचकर मनुष्य को पाप कर्म नहीं करना चाहिए।
कुकर्म से बचने के उपाय - अपने आप को ईष्वर के साथ जोड़ने से मनुष्य पाप कर्म से बच सकता है। यह जानकर कि ईष्वर हर समय मेरे साथ है, मेरे सभी कामों को देखता है तथा उसके अनुसार मुझे फल भी देता है मनुष्य दुष्कर्म से बच सकता है।
महाभारत - धर्म का सर्वस्व जानना चाहते हो तो सुनो। दूसरों का जो व्यवहार आपको अपने प्रतिकूल (विरुद्ध) लगता है अर्थात दूसरों का जो व्यवहार आपको पसन्द नहीं वैसा व्यवहार आप दूसरों के साथ मत करो।
जैसे अग्नि अपने पास आई लकड़ी को जला देती है ऐसे ही वेद का ज्ञान मनुष्य में पाप की भावना को जला देता है अर्थात वेद के स्वाध्याय से मनुष्य में पापकर्म करने की भावना समाप्त हो जाती है।
यजुर्वेद (40,3) - जो मनुष्य अपनी आत्मा का हनन करते हैं अर्थात मन में और जानते हैं, वाणी से और बोलते हैं और करते कुछ ओर हैं, वे ही मनुष्य असुर (दैत्य, राक्षस, पिषाच आदि) हैं। वे कभी भी आनन्द को प्राप्त नहीं करते। जो आत्मा, मन, वाणी और कर्म से कपट रहित एक सा आचरण करते हैं वे ही देवता हैं, वे इस लोक और परलोक मंे सुख भोगते हैं।
सत्यमेव जयते नानृतं, सत्येन पन्था विततो देवयानः। - सत्य की ही जीत होती है, झूठ की नहीं। सत्य पर चलकर ही मनुष्य देवता बनता है। ऋृिष लोग सत्य पर चलकर ही परमात्मा को पाकर आनन्द प्राप्त करते हैं।
ईष्वर की न्याय व्यवस्था में जो किसी का जितना भला करेगा उसको उतना ही सुख मिलेगा और जितना किसी का बुरा करेगा उतना ही उसे दुख मिलेगा। इस प्रकार सत्य और पक्षपात रहित न्याय का आचरण तथा परोपकार के कार्य ही सुख रूप फल देने वाले हैं।
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