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वैदिक उपदेशक, कवि एवं वेद मर्मज्ञ पुरोहित
पटना, बिहार
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वेद मंत्र
||सनातन धर्म को जाने||
आज सनातन पर बहुत बड़ा खेल संसार में हो रहा है। इस खेल में समस्त हिंदू समाज पिस रहा है। बर्बाद हो रहा है। कोई कहता है राम सनातन, कोई कहता है कृष्ण सनातन, कोई कहता है पुराण सनातन, कोई कहता है भागवत सनातन, कोई कहता है शिव सनातन, कोई कहता है हम सनातन। वर्तमान समय में सनातन की रक्षा के लिए भिन्न-भिन्न नारे लगाए जाते हैं। नए-नए अवतार बताए जाते हैं। परंतु सच्चाई तो यह है कि सनातन धर्म की रक्षा के नारे लगाते लगाते हम इतने सिकुड़ते चले गए कि सनातन धर्म की रक्षा की जयकारे भी लगाने लायक नहीं रहे। दुनिया के हर मत, मजहब, संप्रदाय हिंदू धर्म के ऊपर अपने गिद्ध दृष्टि जमाए बैठे हैं। जहां मौका मिलता है नोच नोच कर खाने का प्रयास करते हैं। इतना होने के बाद भी जो धर्म के ठेकेदार लोग हैं, वे केवल मठों में मठाधीश बने बैठे हैं। उन्हें धर्म की कोई चिंता नहीं। सभी अपनी डफली अपने राग में लगे हुए मस्त हैं।
वस्तुतः सनातन ना कोई जाति है, ना कोई संप्रदाय है, ना कोई मत है और ना कोई मजहब । सनातन तो केवल और केवल सत्य है,जो प्राचीन भी है और नवीन भी। अथर्ववेद कांड 10, सूक्त 8, मंत्र 23 में यह स्पष्ट संकेत है-----
सनातनमेनामाहुरुताद्य स्यात् पुनर्णवः।
अहोरात्रे प्रजायेते अन्यो अन्यस्य रूपयो।।
भावार्थ- सनातन उसको कहते हैं जो नित्य नए हो। कभी पुराना हो ही नहीं। जैसे रात और दिन का प्रवाह दिन के पीछे रात आती है। और रात के पीछे दिन। हर दिन एक दूसरे रूप का होता है। हर रात एक दूसरे के रूप की होती है। यह दिन रात नित्य नए रहते हैं।
अथर्ववेद के इस मंत्र से ज्ञात होता है कि सनातन परंपरा किसी मनुष्य की चलाई परंपरा नहीं है। यह तो परमपिता परमात्मा की व्यवस्था है, जिसमें संसार के समस्त प्राणी समाहित हैं। संसार में जितने भी प्राणी हैं उसके उत्पत्ति के नियम जो सृष्टि के आदिकाल से चली आ रही है आज भी उसी नियम पर व्यवस्थाएं बनी है। उसमें किसी प्रकार का बदलाव नहीं हुआ। संसार में जितने भी पेड़ पौधे उग रहे हैं, सृष्टि के आदि से लेकर आज तक वही स्वरूप में दिखाई दे रहा है। सृष्टि के नियम जो आदिकाल में थे आज भी वही विद्यमान है। दिन और रात का चक्र निरंतर चलता रहता है। बिना किसी भेदभाव के मनुष्य की उत्पत्ति भी उसी रूप में हो रही है जैसे पहले हुआ करता था। इसी का नाम सनातन परंपरा है। जिसमें किसी भी स्थिति में किसी प्रकार का परिवर्तन होना असंभव है।
परिवर्तनशील व्यवस्था, नशवान पदार्थ, ईश्वर की आज्ञा का उल्लंघन, बनावटी विधि विधान, कभी भी सनातन नहीं हो सकता। मत, मजहब, संप्रदाय जितने भी हैं इसका सनातन से कोई संबंध नहीं है। सत्य सनातन वैदिक धर्म ही सबसे प्राचीन और नवीन है यह परमपिता परमात्मा की व्यवस्था है।
यहां सत्य सनातन वैदिक धर्म ही सनातन व्यवस्था है। इसे समझने की आवश्यकता है। धर्म को स्थापित करने वाला परम ज्ञान वेद प्रतिपादित ज्ञान, जहाँ से ज्ञान विज्ञान की अजस्र धारा प्रवाहित होती है। इसी ज्ञान से ओत प्रोत हो संसार के समस्त मनुष्य बिना किसी भेदभाव के रह सकते हैं। उसी का नाम सनातन है।
धर्म विश्व ब्रह्मांड को धारण करने वाली आदिशक्ति है। यह शक्ति वनस्पति की हरियाली, सूर्य की गर्मी और प्रकाश, चंद्रमा की चांदनी, वायु की स्पर्शशीलता तथा पृथ्वी की सुगंधता से ओतप्रोत होकर उनके गुणधर्म को सुरक्षा प्रदान करती है। अतः पदार्थ और व्यक्ति के गुण या प्रकृति को धारण करने वाली जो शक्ति है, वही धर्म है। अतः यह किसी पीर, पैगंबर, देवता या अवतार, संत या महंत, के द्वारा निर्मित धर्म नहीं है। यह सर्वत्र प्रवाहित रहने वाला धर्म है। जो किसी किताब या धर्म ग्रंथ में कैद नहीं है। यही सनातन धर्म है। जो सदा से समाज को नवीन शक्ति दान करता चला आ रहा है। जो धर्म पुराना, पहले का या सृष्टि के पूर्व का धर्म है। इसी धर्म को अथर्ववेद 18/3/1 में पुरातन या पुराना धर्म कहा गया है।
ते नस्त्राध्वं ते ऽवत ते उग नो अधि वोचत।
मा नः पथःपित्र्यान्मानवादधि दूरं नैष्ट परावतः।।
ऋग्वेद-8/30/3
इस मंत्र के अनुसार सनातन धर्म ही पितृ या आदीपथ है। जिस पर चलकर पूर्वजों ने सुख प्राप्त किया था। अतः सुख शांति के लिए हमें भी पितृपक्ष का अनुकरण करना चाहिए। हमें सुखदायक मानवीय मार्ग से कभी भी दूर नहीं जाना चाहिए।
इस मंत्र के अनुसार मनुष्य को उस धर्म का पालन करना चाहिए जो शाश्वत है। शाश्वत धर्म का संबंध किसी व्यक्ति विशेष से न होकर आत्मा से उत्पन्न होने वाली आत्मीयता या मानवता से है। मानवता के अभाव में मानव दानव बन जाता है। वास्तव में मानवता या आत्मीयता ही व्यक्ति का सत्य धर्म है ,और जो धर्म सदैव व सर्वत्र रहने वाला है। वही विज्ञान या तर्क सम्मत सनातन धर्म है।
दो प्रतिकूल शक्तियों के योग से ही भाई बहन और अन्य मानवीय संबंध उत्पन्न होते हैं। सृष्टि का यह क्रम अनादि है। यह न टूटने वाला जीवन का सनातन चक्र है। जो इस चक्र को धारण करने वाली शक्तियां है, वह भी सनातन हैं। वह अकस्मात कहीं से उत्पन्न नहीं हुई है। अतः मानवीय रिश्ते कभी भी किसी भी कीमत पर न टूटे। वे सदैव पवित्र बंधन में बंधे रहें। व्यक्ति का व्यक्ति से, पत्नी का पति से, संबंध विच्छेद ना हो, यही काम सनातन धर्म का है। धर्म केवल शोभा या जय जयकार की वस्तु नहीं है। यह किसी आस्था विश्वास या मत का रूप भी नहीं है। फलतः वैदिक धर्म के अनुसार यदि पति पत्नी में तलाक होता है तो वह कभी भी धार्मिक नहीं हो सकते।
धर्म का संबंध गर्भाधान से लेकर मृत्यु पर्यंत तक के सभी 16 संस्कारों अथवा मानव के प्रत्येक कार्य, प्रत्येक क्रिया, प्रत्येक कर्म के साथ उसके उस पथ से भी है जिस पर चलकर वह जीवपार्जन करता है। धर्म का संबंध दुराचार, कदाचार, वामाचार और अन्य अशिष्ट, अश्लील कृतियों से नहीं है। धर्म का संबंध सदाचार, श्रेष्ठ आचरण, और सत् व्यवहार से है। धर्म आचरण का विषय है। भाषण का नहीं। सत्य तब तक सत्य है, जब तक वह किसी सत्ता की अभिव्यक्ति करता है। परंतु जैसे ही उसका सत्ता से संबंध विच्छेद होता है वैसे ही सत्य सत्य नहीं असत्य हो जाता है।
वस्तुत सनातन धर्म का संबंध दिनचर्या और उस जीवन व्यवस्था से है, जिसमें प्रत्येक मनुष्य को बिना पक्षपात के विकास के अवसर प्राप्त होते हैं। जिस व्यवस्था से प्रत्येक व्यक्ति को स्व क्षमता, स्व योग्यता के अनुरूप जीवन पथ वरण करने का मार्ग प्रशस्त होता है। वही वर्णाश्रम व्यवस्था या धर्म है जिसे मनुष्य स्वयं वरण करता है। स्वयं वरण किए गए कार्यों या कर्तव्यों को ही वर्ण धर्म कहते हैं।
वेदोद्धारक महर्षि दयानंद सरस्वती ने अपने अमर ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश के चतुर्थ समुल्लास में लिखते हैं कि देखो जो परमेश्वर की प्रकाशित वेदोक्त बात है वही सनातन और उसके विरुद्ध है वह सनातन कभी नहीं हो सकती। ऐसा ही सब लोगों को मनाना चाहिए। उन्होंने यजुर्वेद के 31 में अध्याय का 11वां मंत्र का प्रमाण देते हुए लिखा है--
ब्राह्मणोऽस्य॒ मुखमासीद् वा॒हू रा॑ज॒न्यः कृतः ।
उ॒रू तद॑स्य॒ यद्वैश्य॑ः प॒द्भयां शूद्रो अ॑जायत ॥
इस का यह अर्थ है कि जो (अस्य) पूर्ण व्यापक परमात्मा
सृष्टि में मुख के सदृश सब में मुख्य उत्तम हो वह (ब्राह्मणः) ब्राह्मण (वाहू) 'बाहुर्वै बलं बाहुर्वै वीर्यम्' शतपथब्राह्मण। बल वीर्य्य का नाम बाहु है वह जिस में अधि हो सो (राजन्यः) क्षत्रिय (ऊरू) कटि के अधो और जानु के उपरिस्थ भाग नाम है जो सब पदार्थों और सब देशों में ऊरू के बल से जावे आवे प्रवेश करे वह (वैश्यः) वैश्य और (पद्भ्याम्) जो पग के अर्थात् नीच अङ्ग के सदृश मूर्खत्व गुणवाला हो वह शूद्र है।
ब्राह्मण- ऋग्वेद-7/103/8 > ब्राह्मण को स्वभाव का शांत तपस्वी और यजनशील होना चाहिए। समस्त संसार में वेद प्रचार करना, भूले भटकों को मार्ग दिखाना, उसका मुख्य कर्तव्य है। उसे अपने आप को छिपा न रखना चाहिए। सादा प्रकट रखना चाहिए। जिससे संसार का उपकार होता रहे।
क्षत्रिय-ऋग्वेद- 5/57/2 > क्षत्रिय को सदा शस्त्रास्त्र से सुसज्जित रहना चाहिए। उसे मनीषी होना चाहिए। अर्थात अपने मन पर, चित्त् की वासनाओं पर, उसका पूर्ण अधिकार होना चाहिए। किसी से दबे नहीं, मूर्खों की भांति बिना सोचे कुछ ना करे। देश को माता समझे। जिस प्रकार एक सुपुत्र माता का कष्ट सहन नहीं कर सकता, सर्वस्व लगाकर भी माता का कष्ट निवारण करता है। वैसे ही क्षत्रिय का कर्तव्य है कि वह देश, माता, मातृभूमि का संकट काटने में अपने प्राणों की बाजी लगा दे। ऐसे लोग अवश्य शुभ फल प्राप्त करते हैं।
वैश्य- अथर्ववेद- 3/15/1 > वैश्य को धन संपन्न होकर अपने वर्ण का मुखिया बनने का यत्न करना चाहिए। मुखिया बनने के लिए तीन गुण तो उसमें आवश्य होने चाहिए। पहला- कंजूस ना होना। दूसरा- परिपंथी ना होना। तीसरा- पशुवृति का ना होना अर्थात स्वार्थी ना होना। ऐसा व्यापारी अपने देश के मुखिया में परिगणित होने लगता है।
शूद्र- यजुर्वेद- 30/5 > तपसे शूद्रम्। (तपसे) मेहनत से, परिश्रम से होने वाले कर्मों के लिए शूद्रम् ,शूद्र है। तप करना हर एक का सामर्थ्य नहीं है। तपस्वी को कौन नीच कह सकता है। जो तपस्वी है वह नीच कैसे। शूद्र को घृणा की दृष्टि से देखने वाले अपने आप को सनातनीकहते हैं। यह आश्चर्य है।
महर्षि दयानंद सरस्वती ने चारों वर्णों में कर्मानुसार परिवर्तन के भी संकेत दिए हैं। मनु स्मृति का प्रमाण देते हुए कहा है
शूद्रो ब्राहाणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम।
क्षत्रियाज्जातमेवन्तु विद्याद्वैश्यात्तथैव च ॥ मनु०॥
जो शूद्रकुल मे उत्पन्न होके ब्राहाण, क्षत्रिय और वैश्य के समान गुण कर्म स्वभाव वाला हो तो वह शूद्र, ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य हो जाय, वैसे ही ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यकुल में उत्पन्न हुआ हो और उसके गुण, कर्म, स्वभाव शूद्र के सदृश हो तो वह शुद्र हो जाय। वैसे क्षत्रिय, वैश्य के कुल में उत्पन्न होके ब्राह्मण वा शुद्र के समान होने से ब्राह्मण और शुद्र भी हो जाता है। अर्थात चारो वर्णो मे जिस जिस वर्ण के सदृश जो जो पुरुष वा स्त्री हो वह वह उसी वर्ण में गिनी जावे।
धर्मचर्य्यया जघन्यो वर्णः पूर्वं पूर्वं वर्णमापद्यते जातिपरिवृत्तौ-१॥
अधर्मचर्य्यया पूर्वो वर्णो जघन्यं जघन्यं वर्णमापद्यते जातिपरिवृत्तौ ॥ २॥
ये आपस्तम्ब के सूत्र हैं। धर्माचरण से निकृष्ट वर्ण अपने से उत्तम उत्तम वर्ण को प्राप्त होता है, और वह उसी वर्ण में गिना जावे कि जिस-जिस के योग्य होवे ॥ १॥
वैसे अधर्माचरण से पूर्व अर्थात् उत्तम वर्ण वाला मनुष्य अपने से नीचे-नीच वाले वर्ण को प्राप्त होता है और उसे उसी वर्ण में गिना जावे।२॥
जैसे पुरुष जिस-जिस वर्ण के योग्य होता है वैसे ही स्त्रियों की भी व्यवस्था समझनी चाहिये। इससे क्या सिद्ध हुआ कि इस प्रकार होने से सब वर्ण अपने-अपने गुण, कर्म, स्वभावयुक्त होकर शुद्धता के साथ रहते हैं। अर्थात् ब्राह्मणकुल में कोई क्षत्रिय वैश्य और शूद्र के सदृश न रहे। और क्षत्रिय वैश्य तथा शूद्र वर्ण भी शुद्ध रहते हैं। अर्थात् वर्णसंकरता प्राप्त न होगी। इससे किसी वर्ण की निन्दा वा अयोग्यता भी न होगी।
शुद्धि आंदोलन के प्रणेता स्वामी श्रद्धानंद जी महाराज सनातन धर्म की रक्षा का मूल कवच आश्रम धर्म को मानते थे। उन्होंने इस संदर्भ में कहा है कि----
सनातन वैदिकधर्म की शिक्षाओं के अनुसार सामान्य मनुष्य की जीवन अवधि सौ वर्ष समझी जाती थी। इसे २५ वर्ष के चार समान भागों में विभक्त किया जाता था। जीवन की इस सामान्य अवधि को विधिवत जीवनयापन क तथा विशेष साधनों द्वारा ३०० वर्ष तक और कभी-कभी ४०० वर्ष तक खीया जा सकता था। इसे सामान्य रूप से इन चार भागों में विभक्त किया जाता की (१) ब्रह्मचर्य अथवा विद्यार्थी जीवन, (२) गृहस्थ जीवन, (३) वानप्रस्थ जीवन, अर्थात् चरित्र की कमियों को पूरा करने के लिए साधु जीवन व्यतीत करना एवं आध्यात्मविद्या तथा चिन्तन का अभ्यास, (४) संन्यास जीवन अर्थात सम्पूर्ण सांसारिक सम्बन्धों को समाप्त करके विश्वभर में सत्य और सदाचार का प्रचार करना तथा त्यागमय जीवन व्यतीत करना।
इस प्रकार यह देखा जा सकता है कि आश्रमधर्म की सम्पूर्ण रचना एक ही चूल पर लटक रही है और वह है ब्रह्मचर्य। जब तक इन्द्रियाँ विधिक और उपयुक्त ढंग से अभ्यस्त न हो जायें और शरीर की भौतिक वृद्धि समरस न हो, कर्मेन्द्रियाँ, ज्ञानेन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, स्मृति और अहंकार अपने नियन्त्रण न हों, तब तक मनुष्य जीवन का उत्तरभाग (अर्थात् शेष तीन आश्रम) समरस रूप में और प्राकृतिक नियमों के अनुरूप नहीं व्यतीत हो सकता।
उपरोक्त वैदिक सिद्धांतों एवं प्रमाणों से सिद्ध होता है कि सत्य सनातन वैदिक धर्म का झरना सभी को आनंदित करता है। वह कर्तव्य बोध से सबकी प्यास बुझाता है। वह बिना भेदभाव के माता-पिता, पिता- पुत्र, आचार्य - शिष्य, राजा और प्रजा सभी के कर्तव्यों का बोध कराता है। यह सब का बोध प्रतिबोध कराता हुआ, निरंतर बहता ही रहता है। इसी प्रकार झरने के समान मनुष्यों को भी बिना भेदभाव किये सत्कर्मों और सत्य धर्म के अजस्र प्रवाह से संपूर्ण विश्व को आनंदित करना चाहिए।
आज जो सनातन के नाम पर जात-पात, भेदभाव, छुआछूत, ऊँच-नीच, अगङा-पिछड़ा, दलित-स्वर्ण आदि का जो जहर घोला जा रहा है, इस वातावरण से समाज को बचाना होगा। गुरु बिरजानंद दांडी ने इस वातावरण को भाप लिया था। गिरावट की गोद में बैठे तथाकथित धर्म के ठेकेदारों को बहुत ही निकट से देखा था। इसी गिरावट को समाप्त करने के लिए अपने शिष्य दयानंद सरस्वती से गुरु दक्षिणा में सनातन धर्म की रक्षा का संकल्प लिवाया था। महर्षि दयानंद सरस्वती अपने गुरु के आदेश का पालन करते हुए सत्य सनातन वैदिक धर्म की रक्षा के लिए आर्य समाज की स्थापना किया।
उन्होंने अपने लघु ग्रंथ "मंतव्यामंतव्यप्रकाश" का प्रारंभ करते हुए लिखा है कि सर्व तंत्र सिद्धांत अर्थात साम्राज्य सार्वजनिक धर्म जिसको सदा से सब मानते आए, मानते हैं और मानेंगे भी। इसीलिए उसको सनातन नित्य धर्म कहते हैं कि जिसका विरोधी कोई भी ना हो।आगे उद्घोष करते हैं कि "मेरी कोई नवीन कल्पना नहीं है। मैं ब्रह्मा से लेकर जैमिनी पर्यंत ऋषियों को मानता हूॅं।"
महर्षि दयानंद सरस्वती की मान्यता है कि चारों वेद, तीन लोक, चार आश्रम अलग-अलग, भूत वर्तमान और भविष्य का धर्म सब वेद से ही सिद्ध होता है। वेद से निकले जितने भी आर्ष ग्रंथ हैं वेदांग, उपनिषद, दर्शन, उपांग, सूत्र आदि यह सब वैदिक सनातन संस्कृति के पोशाक एवं रक्षक हैं। सनातन धर्म कितना प्राचीन है इसकी सिद्धि के लिए महर्षि दयानंद सरस्वती ने ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका में संकल्प पाठ का वर्णन किया। जिससे यह सिद्ध होता है कि संसार में सनातन वैदिक धर्म ही सबसे प्राचीन और नवीन है। इसे ही सभी मनुष्यों को अपनाना चाहिए। महर्षि मनु ने भी मनु स्मृति में संकेत दिया है पित्रृ, देव और मनुष्यों का सनातन चक्षु वेद है।
आर्य समाज का विस्तार करते हुए उनके द्वारा लिखा गया बिहार के प्रबुद्ध आर्य समाजी श्री माधो लाल जी के नाम एक पत्र जिससे यह ज्ञात होता है कि सनातन धर्म की रक्षा करने के लिए महर्षि दयानंद सरस्वती कितने चिन्तित थे। पत्र इस प्रकार है--
बाबू माधो लाल जी आनंद रहो
आपका कुशल पत्र 24 तारीख का गत मास का उचित समय पर हमारे पास पहुंचा। विषय लिखा तो प्रकट हुआ आपकी इच्छा के अनुसार कल की तारीख 31 मार्च को छपे हुए दो पत्र आर्य समाज के मुख्य 10 उद्देश्य अर्थात नियमों को भेज चुके हैं, और आज एक कॉपी उक्त समाज के उप नियमों की भी भेजते हैं। सो निश्चय होता है कि दोनों कापियां नियमों और उप नियमों की आपके पास अवश्य पहुंचेगी। रसीद शीघ्र भेज दीजिए। और इन नियमों को ठीक ठीक समझ कर वेद की आज्ञा अनुसार सबके हित में प्रवृत्त होना चाहिए, विशेष करके अपने आर्यावर्त देश के सुधारने में अत्यंत श्रद्धा और प्रेम भक्ति सब के परस्पर सुख के अर्थ तथा उनके क्लेशों के मेटने में व्यवहार और उत्कंठा के साथ अपने ही शरीर के सुख-दुःखों के समान सर्वदा यत्न और उपाय करना चाहिए। सबके साथ हित करने का ही नाम परम धर्म है। इसी प्रकार वेद में बराबर आज्ञा पाई जाती है जिसका हमारे ऋषि मुनि यथावत पालन करते और अपनी संतानों को विद्या और धर्म के अनुकूल सत्य उपदेश से अनेक प्रकार के सुखों की वृद्धि अर्थात उन्नति करते चले आए हैं। केवल इसी देश से विद्या और सुख सारे भूगोल में फैला है क्योंकि वेद ईश्वर की सब सत्य विद्याओं का कोष और अनादि है। बाकी सब व्यवहार तथा उपासना आदि के विषय हमारी पुस्तकों और इन उप नियम आदि के देखने से समझ लेना उचित है।
आपको हिंदू सत्य सभा के स्थान में आर्य समाज नाम रखना चाहिए। क्योंकि आर्य नाम हमारा और आर्यावर्त नाम हमारे देश का सनातन वेदोक्त है। आर्य के अर्थ श्रेष्ठ और विद्वान धर्मात्मा तथा हिंदू शब्द यवन आदि लोगों का बिगाड़ा और बदला हुआ है। जिसके अर्थ गुलाम, काफिर और काला आदमी, ऐसा विचार कर नाम अपनी सभा का आर्य समाज दानापुर रखकर वेदोक्त धर्मों पर और सब सभासदों में परस्पर नमस्ते कहना चाहिए।
भारत के प्राण सत्य सनातन वैदिक धर्म में है। धर्म और सत्य जीवन के ऐसे अमूल्य तत्व हैं, जिसे अभीष्ट फल प्राप्त किया जा सकता है। भारत ने विश्व गुरु बनने के पूर्व सत्य सनातन धर्म की असीम साधना की थी। इसका उल्लेख यूनान के राजदूत मेगास्थनीज और चीन के राजदूत व्हेन सांग ने किया है। अब जब भी संसार सुखी और शांत होगा, वह धर्माचरण एवं सत्याचरण के द्वारा ही होगा। विश्व शांति स्थापित करने के लिए अन्य कोई मार्ग नहीं है। केवल और केवल सनातन मार्ग ही विश्व को बचा सकता है।
आचार्य संजय सत्यार्थी,आर्योपदेशक-7717766151